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Rudra Hridaya Upanishad - रुद्रहृदयोपनिषद्

   श्री गणेशाय नमः - Rudra Hridaya Upanishad रुद्रहृदयोपनिषद्



रुद्रहृदययोगकुण्डलीभस्मजाबालरुद्राक्षजाबाल और गणपति – ये पाँच उपनिषद् प्रणव के मूल तत्त्व को समझाते हैं। ये श्रुति के महावाक्य हैं और ब्रह्मज्ञान का मार्ग दिखाने वाले पाँच महामन्त्र हैं। इन्हें मुक्तिके लिए आवश्यक पाँच ब्रह्म या मन्त्रात्मक अग्निहोत्र भी कहा जाता है।

रुद्रहृदय का आरंभ श्रीशुकदेवजी के व्यासजी से पूछे गए इसे प्रश्न से होता है,

वेदों में किस एक देवता का मुख्य प्रतिपादन हुआ हैवह कौन है जिसमें सारे देवता वास करते हैंऔर किसकी सेवा व पूजा से सभी देवता सदैव प्रसन्न रहेंगे?"

श्रीशुकदेवजी का प्रश्न सुनकर उनके पिता व्यासजी बोले:

"भगवान रुद्र सभी देवताओं के स्वरूप हैंऔर सभी देवता रुद्र के ही रूप हैं। रुद्र के दक्षिण भाग में सूर्यब्रह्मा और गार्हपत्यदक्षिणाग्नि तथा आहवनीय अग्नि स्थित हैं। उनके बाएँ भाग में भगवती उमाविष्णु जी और चंद्रमा हैं।

जो उमा हैंवही विष्णु हैंऔर जो विष्णु हैंवही चंद्रमा हैं। जो विष्णुजी को प्रणाम करते हैंवे शंकरजी को प्रणाम करते हैं। और जो भक्ति से विष्णुजी की पूजा करते हैंवे वास्तव में शंकरजी की पूजा करते हैं। जो भगवान शंकरजी से द्वेष करते हैंवे विष्णुजी से भी द्वेष करते हैं। जो रुद्र को नहीं जानतेवे केशव को भी नहीं जानते।

रुद्र से सृष्टि का बीज उत्पन्न होता हैऔर उस बीज का आधार विष्णु हैं। रुद्र ही ब्रह्माविष्णु और अग्नि-सोम के रूप में संपूर्ण सृष्टि हैं।

सृष्टि के सभी पुरुष स्वरूप महेश्वर हैंऔर सभी स्त्री स्वरूप भगवती उमा हैं। सारी अचल और चल सृष्टि उमा महेश्वर का ही स्वरूप है।

सम्पूर्ण व्यक्त जगत भगवती उमा का रूप हैऔर अव्यक्त जगत भगवान महेश्वर का। उमा महेश्वर का योग ही विष्णु कहलाता है।

जो भक्ति से विष्णुजी को प्रणाम करते हैंवे आत्मापरमात्मा और अंतरात्मा—इन तीनों को जानकर परमात्मा को प्राप्त करते हैं। अंतरात्मा ब्रह्मा हैं। परमात्मा महेश्वर हैं। और सभी प्राणियों की सनातन आत्मा विष्णु हैं।

इस त्रिलोकीरूपी वृक्ष की जितनी शाखाएँ और तने पृथ्वी पर फैले हुए हैं उसमे अग्रभाग विष्णुजी हैं। मध्य ब्रह्माजी हैं और मूल भगवान महेश्वर हैं। विष्णु कार्यरूप हैंब्रह्मा क्रियारूप हैं और महेश्वर कारणस्वरूप हैं।

भगवान रुद्र ने अपने एक ही स्वरूप को प्रयोजन के अनुसार तीन रूपों में विभाजित किया है:

धर्म रुद्रस्वरूप है। जगत विष्णुस्वरूप है। और समस्त ज्ञान ब्रह्मास्वरूप है।

'श्रीरुद्र रुद्र रुद्र' का जप करने से सभी देवताओं का स्मरण हो जाता है।

भगवान रुद्र पुरुषस्वरूप हैं और स्त्रियाँ उमास्वरूपा। रुद्र ब्रह्मा हैं और उमा सरस्वती। रुद्र विष्णु हैं और उमा लक्ष्मी। रुद्र सूर्य हैं और उमा छाया। रुद्र चंद्रमा हैं और उमा तारा। रुद्र दिवस हैं और उमा रात्रि। रुद्र यज्ञ हैं और उमा वेदी। रुद्र अग्नि हैं और उमा स्वाहा। रुद्र वेद हैं और उमा शास्त्र। रुद्र वृक्ष हैं और उमा लता। रुद्र गंध हैं और उमा पुष्प। रुद्र अर्थ हैं और उमा अक्षर।

सर्वदेवात्मक रुद्र को और भगवती उमा को नमस्कार है। मैं इन मंत्रों के माध्यम से भगवान महेश्वर और भगवती पार्वती को नमस्कार करता हूँ।
मनुष्य जहाँ भी होइस मंत्र का जाप करते रहे। यदि कोई व्यक्ति जल में प्रवेश कर इस मंत्र का जाप करेतो वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

अब इस मंत्र को संस्कृत में सुनिए –

धर्मो रुद्रो जगद्विष्णुः सर्वज्ञानं पितामहः ।

श्रीरुद्र रुद्र रुद्रेति यस्तं ब्रूयाद्विचक्षणः ॥ 

कीर्तनात्सर्वदेवस्य सर्वपापैः प्रमुच्यते ।

रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

रुद्रो ब्रह्मा उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः ।

रुद्रो विष्णुरुमा लक्ष्मीस्तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

रुद्रः सूर्य उमा छाया तस्मै तस्यै नमो नमः ।

रुद्रः सोम उमा तारा तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

रुद्रो दिवा उमा रात्रिस्तस्मै तस्यै नमो नमः ।

रुद्रो यज्ञ उमा वेदिस्तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

रुद्रो वह्निरुमा स्वाहा तस्मै तस्यै नमो नमः ।

रुद्रो वेद उमा शास्तं तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली तस्मै तस्यै नमो नमः ।

रुद्रो गन्ध उमा पुष्पं तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

रुद्रोऽर्थ अक्षरः सोमा तस्मै तस्यै नमो नमः ।

रुद्रो लिङ्गमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नमः ॥

सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात्पृथक्पृथक् ।

एभिर्मन्त्रपदैरेव नमस्यामीशपार्वती ॥ 

जो सबका आधार हैद्वंद्वों से परे हैसच्चिदानंद स्वरूप हैसनातन और परम ब्रह्म हैवह मन और वाणी की सीमा से परे है, वही रुद्र परम ब्रह्म स्वरूप हैं। उन्हे जान लेने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता हैक्योंकि हर वस्तु उन्ही का स्वरूप है और उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है।

दो विद्याएँ जानने योग्य हैं:

पहली अपरा विद्या:  जिसमें ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेदशिक्षाकल्पव्याकरणनिरुक्तछंद और ज्योतिष शामिल हैं। अपरा विद्या में आत्मज्ञान को छोड़कर सभी बौद्धिक ज्ञान आते हैं।

दूसरी परा विद्या:  यह वह विद्या है जिसके द्वारा आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है। यह परम अविनाशी हैजिसे देखा या ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह नामरूपऔर गोत्र से परे है। यह विषयों से परेनित्यसर्वव्यापीसूक्ष्मऔर विकाररहित है। यह सभी भूतों का स्रोत और आधार है। धीर पुरुष ईसी से  परमात्मा को अपने भीतर देखते हैं।

परमात्मा सर्वज्ञ हैभूतभविष्य और वर्तमान को जानने वाले है। वह सभी विद्याओं का आश्रय है। ज्ञान ही उनका तप है। उसी से भोक्ता और अन्नरूप यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न होता है।
यह जगत सत्य की तरह प्रतीत होता हैलेकिन वास्तव में यह ब्रह्म में उसी प्रकार स्थित है जैसे रस्सी में सर्प का भ्रम।

संसार के बंधन का नाश केवलपरा विद्या के  ज्ञान से होता हैकर्म से नहीं। 
यदि व्यक्ति अपने हृदय की गुफा में स्थित अक्षरब्रह्म को साक्षात कर लेता हैतो वह अविद्या के बंधन को काटकर सनातन शिव तक पहुँच जाता है। यही अमृतरूप सत्य हैजिसे मुमुक्षुओं को जानना चाहिए।

प्रणव अक्षर औम धनुष हैआत्मा बाण हैऔर परमात्मा लक्ष्य है। साधक को ध्यानपूर्वकबिना प्रमादलक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जब बाण यानि आत्मा, लक्ष्य यानि परमात्मा में प्रवेश कर जाता हैतो साधक उन्ही में तन्मय हो जाता है।

जीव और ईश्वर में जो चेतना यानि चित् हैवह स्वरूपतः भिन्न नहीं है। चित्स्वरूप में कोई भेद नहीं होताभेद केवल जड़ उपाधियों यानि माया के कारण प्रतीत होता है। चित्त सर्वत्र एक ही है, और युक्ति तथा प्रमाण से यह एकता सिद्ध होती है। जब पुरुष को चित्त के एकत्व का ज्ञान हो जाता हैतो वह शोक और मोह से मुक्त हो जाता है। वह अद्वैत आनंद स्वरूप शिवभाव को प्राप्त कर लेता है।

मुनि उसे 'अहमस्मि' (वह परमात्मा मैं ही हूँ) इस निश्चय के साथ जानकर शोकरहित हो जाते हैं। अपने अंतःकरण में उस स्वयंज्योतिसर्वसाक्षी परमात्मा को केवल वही देख सकता हैजिसने अपने दोषों को मिटा दिया है। माया से आवृत प्राणी उन्हे नहीं देख सकते।

इस प्रकार रुद्र हृदय उपनिषद पूर्ण होता है। 

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